Exam of excellence in values of humanity, morality & ethics.

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धारणीय सद्‌गुण

सजनों अब तक हम जान चुके हैं अज्ञान व अचेतना के कारण पनपे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार रूपी विषय विकारों के बारे में। इसी संदर्भ में जानो कि अचेतन अवस्था सब बुराईयों व बिमारियों की जड़ है, पाप है, अधर्म है जो हमारे सुख, आनंद और खुशी का विनाश कर उसे विध्वंस कर देती है। इसके विपरीत चेतना ही सद्‌गुणों व सदाचार की पगडंडी/रास्ता है। अत: आत्मज्ञान प्राप्त कर समभाव-समदृष्टि की युक्ति अनुसार अपने चैतन्य स्वरूप की पहचान करो व जगत के सब कार्य-व्यवहार करते हुए उसी संग जुड़े रह सदा सचेतन बने रहो। ऐसा करने पर ही आपके भाव-स्वभाव सुन्दर व श्रेष्ठता का प्रतीक बनेंगे और आप द्वारा जीवन में किए जाने वाले कार्यों या आचरणों का स्वरूप आपकी योग्यता, मनुष्यत्व आदि का सूचक होगा। इस संदर्भ में याद रखना  स्वभावों के गुण-दोष ही क्रमश: सदाचरण व चरित्रहीनता के मापदंड होते हैं। अत: एक सदाचारी इंसान की तरह उच्च नैतिक मूल्यों यथा सम, संतोष, धैर्य, सच्चाई, धर्म को अपनाना व समभाव-समदृष्टि के प्रतीक बन परस्पर सजनता का वर्त-वर्ताव करने में दक्ष हो जाना। फलत: आपको अपने प्रकाशित हृदय में  निर्मलता का वातावरण पनपने पर स्वत: ही अपने असलीयत स्वरूप की पहचान हो जाएगी। फिर जैसे ही आप उस असलीयत ज्योति स्वरूप को स्वीकार लोगे और ‘विचार ईश्वर है अपना आप‘ के भाव पर खड़े हो जाओगे तो एक निगाह एक दृष्टि होकर एक दर्शन में स्थित हो जाओगे और कह उठोगे सब सजन हुण वैरी कौन?

आप ऐसा करने में कामयाब हो इस हेतु आओ हम इन श्रेष्ठ सद्‌गुणों के बारे में जानते हैं:-

संतोष

संतोष मन की वह वृत्ति या अवस्था है जिसमें मनुष्य अपनी वर्तमान दशा में ही पूर्ण सुख का अनुभव करता है यानि वह न तो किसी बात की कामना करता है और न ही किसी बात की शिकायत। वह तो हर हालत में किसी बात की चिंता, अपेक्षा व परवाह न करते हुए सदा संतुष्ट व प्रसन्न बना रहता है। संतोष की उत्पत्ति सात्विक वृत्ति से होती है और इसके पैदा हो जाने पर मनुष्य को अनंत और अखंड सुख मिलता है। पुराणानुसार धर्मानुष्ठान से सदा प्रसन्न रहना और दु:ख में भी आतुर न होना संतोष कहलाता है। संतोषी सब से धनवान कहलाता है। वह ही अमीरों का भी अमीर होता है क्योंकि उसके लिए रत्न खान भी धूरि के समान होती है।

संतोष मनुष्य के अंदर मनुष्यता का भाव विकसित करने एवं उस भाव को स्थित करने में अपने आप में परिपूर्ण सिद्ध होता है क्योंकि संतोष द्वारा ही मनुष्य के अंदर सजन-भाव, दया-भाव, चित्त की कोमलता, धीरता, शीलता, सभ्यता, शिष्टता, व्यवहार ज्ञान आदि सद्‌गुणों का उद्‌भव होता है अर्थात्‌ संतोषी सजनता का प्रतीक बन जाता है। इस प्रकार सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ के अनुसार संतोष मनुष्य के मूल आवश्यक गुण समभाव-समदृष्टि को न केवल उन्नत करता है वरन्‌ श्रृंगारता भी है जिससे प्राणी की प्रकृति सदा समान बनी रहती है अर्थात्‌ विकृत नहीं होती। इस महत्ता के दृष्टिगत ही सजनों सतवस्तु का कुदरती ग्रन्थ सजनों को संदेश दे रहा है कि संकल्प को सजन बनाओ और संतोष पर फतह पाओ।

मत भूलो कि संतोषी ही अपनी प्रालब्ध को स्वीकारने की हिम्मत जुटा पाता है और अपनी हैसियत अनुसार विचरने में ही गर्व महसूस करता है। वह जो भी कपड़ा  पहनता है अपनी हैसियत अनुसार साफ़-सुथरा और उजला पहनता है। अपनी हैसियत के अनुसार खुराक भी खाता है ताकि उसकी सेहत ठीक रहे क्योंकि वह जानता है कि सेहत के बिना भजन-बन्दगी नहीं हो सकती। संतोष के इस महान जीवनदायक महत्त्व को देखते हुए सजनों हम सभी सजनों के लिए बनता है कि हम जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में संतोष रखे व माने अर्थात्‌ सम अवस्था में स्थिर बने रहे।

धैर्य

धैर्य का अर्थ है धीरता यानि धीर होने का भाव। संकट, बाधा, कठिनाई या विपत्ति आदि आने पर घबराहट का न होना अर्थात्‌ चित्त में उद्वेग, हड़बड़ाहट या उतावलापन न उत्पन्न होने का भाव धैर्य कहलाता है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि जिसमें किसी प्रकार का विकार या परिवर्त्तन न हो अर्थात्‌ निर्विकार चित्तता यानि चित्त की स्थिरता या मन की दृढ़ता धैर्य दर्शाती है। धैर्य बुद्धिमत्ता व गंभीरता का प्रतीक है।

धैर्य मन की चंचलता से बचाता है क्योंकि गंभीर व्यक्ति का मन निश्चल होता है यानि इधर-उधर नहीं भटकता और उसके अन्दर का उग्र भाव नष्ट हो जाता है। इस तरह धैर्यवान स्थिर चित्त वाला, दृढ़मति व इतना गहरा होता है कि उसकी थाह जल्दी कोई नहीं पा सकता अर्थात्‌ उसके अर्थ तक पहुँचना कठिन होता है। यही नहीं धैर्यवान दृढ़ विचार वाला और पक्के इरादे वाला होने के साथ-साथ मज़बूत धुरी वाला भी होता है। धैर्य द्वारा चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान समझ में आ जाता हैं। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि संतोष की भांति धैर्य भी मनुष्य के मूल आवश्यक गुण समभाव-समदृष्टि को श्रृंगारते हुए और निखारता है तथा वर्त-वर्ताव में लाने का बुद्धि-बल अर्थात्‌ विचारशक्ति प्रदान करता है।

धैर्य के संदर्भ में सजनों याद रखो जीवन में सुख-दु:ख तो निरंतर आते रहते हैं। सुख तो सभी भोग लेते हैं पर दुख धीर ही सहते हैं। इस तरह धैर्य, बलवान, मनोहर, विनम्र, सुशील, शांत चित्त, प्रफुल्ल  होने का गुण है। धैर्य के बिना कोई भी पराक्रमी, शूरवीर, निर्भय, सहनशील, निश्चल, निष्ठावान, गंभीर, क्षमावान, आत्मज्ञानी, तेजस्वी, शुद्ध स्वभाव वाला, प्रसन्नचित्त, आत्मसंयमी, विरक्त अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकता। इस तथ्य के दृष्टिगत अपने जीवन-लक्ष्य प्राप्ति हेतु धैर्य की महत्ता को समझते हुए धीर होने का भाव अपनाओ और जीवन की विभिन्न परिस्थियों में धीरज रखो और धैर्यवान नाम कहाओ।

सच्चाई

सच्चाई के संदर्भ में सर्वप्रथम सत्य को समझना अनिवार्य है। अत: जानो सत्य स्वयं परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा है यानि सत्य ही ब्रह्म है। सत्य ही चानणा है। सत्य ही परम बल है। सत्य के अतिरिक्त और किसी चीज़ का अस्तित्व संभव नहीं। सत्य रूपी धुरी पर ही यह ब्रह्मांड टिका हुआ है। इस परम सत्य के साथ यदि ख्याल जुड़ गया तो समझो कि जीवन बन गया। सत्य के साथ ख्याल जोड़ने से अभिप्राय ‘विचार ईश्वर है अपना आप‘ अपने असलियत स्वरूप को जान-पहचान कर सत्य स्वरूप हो जाने से है।

याद रखो सत्य का सर्वश्रेष्ठ अभिनंदन यह है कि हम उसको आचरण में ले आएं। इसलिए सच्चाई को ग्रहण/धारण कर व अपने आचार-व्यवहार द्वारा प्रदर्शित कर इस शरीर रूपी मकान को सचखंड बनाने का विधान है। सच्चाई सत्यता, सच्चापन यानि सच्चा होने का भाव है। सच्चाई को धारण करने वाला जैसा हो वैसा ही बिल्कुल ठीक यथार्थ व पूरा बयान करता है। सच्चाई के मार्ग पर चलने वाला कभी झूठ नहीं बोलता यानि वह सत्यवादी व ईमानदार होता है। वह निष्कपट, सरल, निर्मल, निर्भीक और शालीन होता है इसलिए खरा यानि खालस कहलाता है। उस सत्य पथ पर चलने वाले सच्चरित्र को सब सदाचारी व न्यायी मानते हैं। इस तरह वह सबकी विश्वसनीयता व गोपनीयता का पात्र होता है।

अंतत: याद रखो सत्य से बढ़कर धर्म नहीं है। अत: समस्त अन्य आडम्बर छोड़कर इसी सत्य-धर्म पर टिके रहो। जानो सत्य ही मानवता का प्रतीक है। इसी का धारक बलवान होकर जीवन जीने में सक्षम हो सकता है इसलिए सत्य को धारण करना सुनिश्चित करो और सत्य स्वरूप होकर जगत में निर्वैर, निरासक्त, निष्कपट निर्विकारता से जीवन जीने के योग्य बनो।

धर्म

किसी वस्तु या व्यक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे उससे कभी अलग न हो  धर्म कहलाती है अर्थात्‌ धर्म इन्सान का मूल गुण, स्वभाव व गुण वृत्ति है। धर्म वह कर्म या कृत्य भी है जो पारलौकिक सुख को प्राप्त करने के अर्थ से किया जाता है। वह कर्म जिसका करना किसी सम्बन्ध, स्थिति या गुण विशेष के विचार से उचित और लोक या समाज की  स्थिति के लिए आवश्यक हो, धर्म कहलाता है। धर्म वह आचार है जिससे न केवल समाज की रक्षा व सुख-शांति में वृद्धि होती है अपितु बाहर परलोक में भी उत्तम गति प्राप्त होती है। धर्म सदाचार व सत्‌ कर्मों का प्रतीक है, जो सजन को अपने व सबके प्रति उसके फर्ज़ व कर्तव्य की चेतना दिलाता है। निज धर्म का पालन करने वाला धर्मपरायण कहलाता है। धर्म उचित-अनुचित का विचार करने वाली चित्त वृत्ति भी है जो सजन को विवेकी, न्यायबुद्धि व ईमानदार बनाती है। धर्म निष्पक्ष होने का भाव या स्थिति भी है यानि धर्म रूप, रंग, जाति के विभेद से परे है।

मनुष्य के लिए उसके सम्पूर्ण जीवन का कर्म, जो उसके कर्त्तव्याकर्त्तव्य संचालन में नियंत्रण एवं निर्देशन करता है वह धर्म है। जिस प्रकार धर्म के बिना वस्तु का वस्तुत्व नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार धर्म के बिना मनुष्य का मनुष्यत्व ही नष्ट हो जाता है। इस प्रकार धर्म मनुष्य की चेतना को बोध युक्त करती है। मनुष्यत्व की रक्षा और परमेश्वर की प्राप्ति धर्म द्वारा ही होती है। धर्म का महत्त्व यह है कि वह मनुष्य के लिए संयम के विधि एवं निषेध  दोनों पक्षों का विवेचन करता है। धर्म सदाचारमय जीवन पर न केवल बल देता है वरन्‌ इसका पालन कैसे हो, यह निर्देश भी देता है। धर्म मर्यादा में विश्वास जागृत कर समाज से सुसम्बद्ध रखने में सहायता करता है। इस प्रकार धर्म जीवन प्रणाली है। धर्म में ही कर्त्तव्य कर्मों, आचार-संहिता, नियम, रीति रिवाज़, आचार-विचार,  नैतिक आचरण, शिष्टाचार आदि का समावेश हो जाता है। सकाम भाव से सम्पादित होने पर धर्म ऐहिक फलों को देता है तथा निष्काम भाव से सम्पादित होने पर मोक्ष की उपलब्धि कराता है। सारत: कहा जा सकता है कि धर्म ही समस्त जगत का आधार है। धर्म पर ही जगत अवस्थित है। संसार में धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि यही आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान, तद्‌-अनुरूप हो जाने का साधन है। इस नाते सत्य की भी धर्म में ही प्रतिष्ठा है। इस महत्ता को समझते हुए सजनों मानव धर्म अनुकूल आचरण करो और एकता, एक अवस्था में बने रह परमपद को पाओ।

सम

सम का शाब्दिक अर्थ है जो सदा समान यानि एक रस रहे, जो सदा समान गुणों वाला सद्‌गुणसंपन्न हो, अभिन्न हो, सर्वत्र एक जैसा व बराबर यानि समानदशा या अवस्था में बना रहे अर्थात्‌ समरूप रहे, निष्पक्ष व निरपेक्ष रहे। कहने का तात्पर्य यह है कि जिसे कभी भी बदला न जा सके व जो सर्वदा अप्रभावित व अपरिवर्त्तित हो, वही सम है। सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ के अनुसार जानो कि सम नित्य शब्द रूप, सर्वव्यापक भगवान यानि सच्चिदानंद निर्दोष अविनाशी परब्रह्म परमेश्वर का प्रतीक है। अन्य शब्दों में यह सद्‌गुणसम्पन्न, संपूर्ण, यथार्थ व सदा एक समान रहने वाले परमेश्वर का द्योतक है। तभी तो सम को शाश्वत सत्य माना गया है और कहा गया है कि ईश्वर ही सम है और सम ही ईश्वर है। यद्यपि सम स्वरूप होकर ही ईश्वरीय ब्रह्म सत्ता सर्वदा तीनों कालों में एक रस विचरती है तथापि किसी प्रकार का विघ्न उसको स्पर्श नहीं कर पाता। इस प्रकार सम का ही प्रगट रूप यह संसार है और इसी की स्थिति के कारण सब पदार्थ परस्पर विशुद्ध प्रेम की आकर्षण शक्ति में बँधे हुए है। विभिन्न धर्म ग्रन्थों के अनुसार सम ईश्वरीय शक्ति का यथार्थ स्वरूप और गुण है। यह वह अनादि चेतन प्रकाश है जो पूर्ण, नित्य, व सत्‌ चित्त आनंद स्वरूप है। यह ही संसार का मूल है और शांति स्रोत भी। यह ही परम पद है और यह ही योग सिद्धि भी। यह ही ज्ञान की वह चरम स्थिति है जहां पहुँच कर जीव विश्राम पाता है। इस का विचार एवं इसमें स्थिति ही मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। अत: इसका ज्ञान व धारणा परम हितकारी है। अपने व सर्वहित के लिए सजनों संतोष, धैर्य, सच्चाई, धर्म को धारण कर, सम पर खड़े हो जाओ और अपने स्वरूप को पाओ।

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