मानव स्वरूप की पहचान
आओ समझते हैं कि मनुष्य रूप में हम हैं क्या ?
हम मानव हैं। मानव यानि प्रकृति की सर्वोत्तम अद्भुत कलाकृति। मानव रूप में हमारा यह जन्म सभी जन्मों में श्रेष्ठ, महत्त्वपूर्ण व दुर्लभ है तथा मोक्ष का द्वार है।
हमारा यह मानव रूप, चैतन्य शक्ति आत्मा और पंचतत्त्व युक्त विनाशशील जड़ शरीर का समन्वय है। इस संदर्भ में जानो कि न तो चैतन्य शक्ति के बिना यह जड़ शरीर क्रियावन्त हो सकता है और न ही जड़ शरीर के बिना चैतन्य शक्ति कोई कार्य कर सकती है। अन्य शब्दों में मानव रूप में हमारा यह जड़ शरीर चैतन्य शक्ति का अमूल्य वाहन है। अत: दोनों का ही संतुलित विकास वांछनीय है। आत्मिक ज्ञान ही इस वांछनीय विकास की पूर्ति का एकमात्र साधन है यानि इसी से ही शरीर व आत्मा का विकास हो सकता है।
जानो कि प्रकृति ने सर्वोत्कृष्ट मानव/प्राणी के भेस में हमारी रचना स्वयं अपने नियंता, सेवक तथा संचालक के रूप में की है। हममें प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ के गुण, दोष, कर्म तथा स्वभाव को जानने की तथा उसको सर्व हित के निमित्त प्रयोग करने की क्षमता है। हमारी क्षमताएँ असीम हैं। कोई भी कार्य हमारे लिए असंभव नहीं।
यही नहीं मानव रूप में हम सृष्टि कर्त्ता, संचालक भगवान के साकार प्रतिनिधि हैं। भगवान अर्थात् जो एक है, इच्छा/संकल्प रहित है, जिसका कोई रूप, रंग तथा नाम नहीं है, जो सच्चिदानंद और परमधाम स्थित है तथा समग्र विश्व जिसकी सुन्दर अभिव्यक्ति है। इस अर्थ से हम में से प्रत्येक मानव भगवान का ही रूप है यानि भगवान जो कि सब शक्तियों के भंडार हैं वह ही इस मानव शरीर/देह में स्थित होकर अपनी ब्रह्म सत्ता के माध्यम से लोक कल्याणार्थ अनेक लीलाएँ कर रहे हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए इस जगत में उसका प्रतिरूप बनकर सब कुछ उसी ईश्वर के निमित्त उसी सम शक्तिशाली होकर, समर्पित भाव से ही करो। यह ‘विचार ईश्वर है अपना आप‘ पर खड़े रह, अपने धर्म पर स्थिर बने रहने की बात होगी।
स्मरण रहे जिस मानव शरीर में स्थित होकर परमात्मा आप नाना प्रकार की क्रीडाएँ कर रहे हैं उसे नौ द्वारों वाली देवपुरी/देवालय कहा जाता है। इस देवालय में सोने का एक ज्योतिस्वरूप एवं प्रकाशमय परिपूर्ण रमणीय, मस्तिष्क है जो मानव के समस्त प्राणियों में विशिष्ट, विवेकशील व बुद्धिमान होने का परिचायक है। अत: जीवन आनन्दमय व्यतीत करने हेतु इसको प्रकाशमय रखते हुए तनावमुक्त रखना अनिवार्य है।
जानो परम कल्याणकारी, ज्ञानसागर, परमपिता, दिव्य चैतन्य शक्ति परमेश्वर द्वारा रचित यह विशाल ब्रह्मांड हम सबका कार्य क्षेत्र तथा एक अति सुन्दर रंगशाला है। हम सब उस परमात्मा के अभिन्न अंश, इस रंगशाला के अभिनेता हैं तथा इसको सुन्दर बनाने व इसकी मान-मर्यादा की रक्षा करते हुए, इसकी सुख-शांति में वृद्धि करने हेतु यानि लोक-परलोक संवारने के लिए हमारा इस धरती पर प्रादुर्भाव हुआ है। इस तथ्य को याद रखते हुए इस जग में अच्छे तरीके से अपना पात्र अदा करने वाले कुशल अभिनेता बनो, नेता नहीं। इसके लिए आपको ईश्वरीय आज्ञाओं/हुक्म को सुन-समझकर भली भांति उनका पालन करो।
मान लो कि इस रंगशाला में हम अकेले नहीं अपितु सब शक्तियों के स्रोत, ज्योतियों की ज्योति, आत्मा रूप में परमात्मा स्वयं हमारे अन्दर तथा हमारे सब ओर स्थित हैं यानि सर्वव्यापक हैं। इसी निष्ठा व आत्मविश्वास के साथ हमें अपना ख़्याल ध्यान वल व ध्यान आत्म प्रकाश वल जोड़े रखते हुए, अपना अभिनय यानि जीवन का हर कारज निष्कामता व निर्भयता से सिद्ध करने के योग्य बनना है। ऐसा करने से हमारा ख़्याल, दृष्टिकोण व व्यवहार सदा सकारात्मक व समता से परिपूर्ण रहेगा व ब्रह्मांड की सब दिव्य शक्तियाँ तथा साधन स्वयंमेव हमारे पास आ जाएंगे। कहने का आशय यह है कि समभाव नज़रों में हो जाएगा और हम समदर्शिता अनुरूप परस्पर सजनता का व्यवहार कर सकेंगे। सजनों जानों ऐसा अद्भुत होने पर ही हम परमार्थ के रास्ते पर स्थिर बने रह सहजता से परोपकार कमा अपना नाम रोशन कर पाएंगे।
इस संदर्भ में मत भूलना कि परमात्म तत्त्व को प्राप्त करना यानि आत्मप्रकाश के रूप में सर्वत्र अभिव्यक्त अपनी ब्रह्म सत्ता को ग्रहण करना और अपना उद्धार करना हमारा स्वधर्म है। इसके विपरीत शरीर से अपना सम्बन्ध मानकर भोग और संग्रह में लगना हमारे लिए पर-धर्म के समान है यानि निज धर्म से च्युत होने की बात है। अत: निज मानव-धर्म के अनुसार मानवीय गुणों यथा संतोष, क्षमा, शील, प्रेम, अहिंसा, धैर्य, सत्य, सेवा, त्याग भाव आदि से युक्त होकर, अपने आचरण को उच्च तथा शिष्ट बनाते हुए पवित्र जीवन व्यतीत करना तथा अपनी शारीरिक, मानसिक/बौद्धिक व आत्मिक क्षमताओं को समुचित ढंग से विकसित करते हुए श्रेष्ठ व्यक्तित्व का प्रदर्शन करना हमारा परम कर्त्तव्य है। अत: इस कर्त्तव्य को धर्मसंगत निभाओ। नि:संदेह इस हेतु राग, द्वैष, घृणा, तेरी-मेरी, वैर-विरोध, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि दुर्गुणों से रहित होकर व समभाव-समदृष्टि से युक्त होकर प्रकृति के सब भेदों की तथा सब पदार्थों के गुण-दोषों की जानकारी प्राप्त करनी होगी और आपसी सद्भावना व प्रेम से बिना किसी भेद-भाव/स्वार्थ-भाव के सर्व कल्याण हेतु उनका निष्कामता से प्रयोग करना व करवाना होगा ताकि हम प्रकृति के नियमों के अनुकूल सत्यनिष्ठा व धर्मपरायणता से निर्दोष जीवन जी सके व सबको भी इसी अनुसार जीवन जीने की प्रेरणा दे सकें।
ऐसा करते समय सदा याद रखना कि मार्ग में आने वाली समस्याएँ, कठिनाईयाँ तथा असफलताएँ परीक्षा के रूप में हमारी दृढ़ता, धीरता व क्षमताओं का विकास करने के लिए अनिवार्य हैं। अत: इनसे घबराकर या निराश होकर, जीवन के प्रति नकारात्मक रवैया अपना कर हाथ पर हाथ रखकर मत बैठ जाना यानि अर्थहीन जीवन जीते हुए भाग्य/भगवान को दोष मत देना। अपितु वीरों की भांति नियति के यानि अदृष्ट ईश्वरीय शक्ति के विधान पर सुदृढ़ विश्वास रखते हुए, प्रभु के हर हुक्म की पालना हँस कर सहज भाव से करना। इस तरह जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने वाली हर बाधा/परिस्थिति का सामना विचार शब्द को अंग-संग रखते हुए, साहस, शूरता व धीरता से करना और सच्ची लगन, एकाग्रता व शांति-शक्ति के बलबूते पर सत्य-धर्म पर डटे रहते हुए इन तमाम समस्याओं, कठिनाईयों तथा असफलताओं पर विजय प्राप्त कर लेना और ईश्वर के सपुत्र कहलाना। याद रखो यदि ऐसा कर लिया तो सुख-दु:ख, जन्म-मरण, रोग-सोग, खुशी-गमी, मान-अपमान, अमीरी-गरीबी आदि में अपने चैतन्य स्वरूप में समरस स्थिर बने रह ही सकोगे साथ ही अमरता की प्रतीति कर मौत के भय से भी मुक्त हो जाओगे। यह होगा तमाम दु:खों, कष्टों, क्लेशों, तापों-संतापों व जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा अपने जीवन का अर्थ सिद्ध कर लेना यानि अमरपद प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लेना। इस अमरपद यानि मोक्ष को प्राप्त करने के बाद फिर कभी भी संसार में वापिस लौट कर नहीं आना पड़ेगा। इस तरह वेद-शास्त्र का यह कथन शत्-प्रतिशत् सही सिद्ध हो जाएगा कि ‘वास्तव में मानव जन्म ही सब जन्मों का आदि तथा अन्तिम जन्म है। यदि मानव परमात्म प्राप्ति कर ले तो अन्तिम जन्म भी यही है और परमात्मप्राप्ति न करे तो अनन्त जन्मों का आदि जन्म भी यही है।‘
यह सब जानने के पश्चात् सजनो सब मानेंगे कि हमारा यह मानव जीवन बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस मानव शरीर की महिमा विवेक को लेकर है, क्रिया को लेकर नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘वास्तव में मनुष्य कर्मयोनि नहीं है वरन् साधन योनि है। जो साधक नहीं है, वह देवता या असुर तो हो सकता है पर मनुष्य नहीं हो सकता‘। अत: बुद्धिहीनों की तरह विषय भोगों में रत हो, इसे नीचतापूर्ण दुराचारी कर्मों में मत गंवाओ अपितु इस जीवन की सफलता के लिए, मानव रुप में सबको एक समान समझते हुए, सबसे समरूप एकता का व्यवहार करने में ही अपनी शान समझो। कहने का आशय यह है कि अच्छे-बुरे, बड़े-छोटे, अपने-पराए के भेद-भाव से रहित होकर, विश्व के समस्त प्राणियों के हृदय में एक ही दिव्य तेज का अनुभव करो और समभाव-समदृष्टि अनुरूप परस्पर सजन भाव का वर्त-वर्ताव करना सुनिश्चित करो। इस तरह हरदम सावधान रहते हुए, सुख-दु:ख दोनों से ऊपर उठो व समभाव को अमल में लाने वाले सच्चे पुरुषार्थी व सदाचारी बनो।
याद रखो ऐसा पुरुषार्थी बनने हेतु शारीरिक और मानसिक दोषों को त्याग कर, सदा अपने मन-वचन-कर्म को आत्मा के समान निर्मल, कोमल और पवित्र बनाए रखना सुनिश्चित करना होगा। तभी इस अनमोल मानव जीवन को पाकर आत्मोद्धार कर सकोगे। इस संदर्भ में मत भूलना कि प्रत्येक मानव अपना उद्धारक आप ही है। न तो कोई किसी की अवनति के लिए उत्तरदायी है और न कोई किसी की उन्नति में अवरोध पैदा कर सकता हैं। अत: हममें से प्रत्येक विचार ईश्वर आप नूं मान परमात्मा के दिशानिर्देशन में अपनी बुद्धि द्वारा मन को नियंत्रण में रखकर अपना जीवन सफल बना सकता है। इस महत्त्वपूर्ण बात को याद रखते हुए हमें भी अपना जीवल सफल बनाने हेतु सर्वव्याप्त ब्रह्म तत्त्व का अनुभव करना है और अपने जीवन के प्रयोजन को समझते हुए, परोपकारिता की भावना से ओत-प्रोत हो, सबकी सेवार्थ अपना यह अनमोल मानव जीवन निष्काम भाव से समर्पित कर देना है।