Exam of excellence in values of humanity, morality & ethics.

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मानवता

हम मानव यथार्थता में अपने मानव होने की सत्यता को प्रतिष्ठित कर सकें उसके लिए हमें कलुकालवासियों द्वारा अपनाए मानवत्‌ भाव के स्थान पर मानवता का भाव अपना सदा एकता व एक अवस्था में बने रहना होगा। आओ इस संदर्भ में पहले मानवत्‌ शब्द के अर्थ को समझते हैं:-

मानवत्‌ से तात्पर्य घमंडी, अहंकारी, अभिमानी, दर्पवान, सदा ईर्ष्या के कारण क्रुद्ध रहने वाले तथा मानवता से रूठे हुए इंसान से है।

इसके विपरीत मानवता से आशय संसार के मनुष्यों का समूह या समाज जिसे ह्यूमैनिटी कहते हैं, उस से है। याद रखो, मानवता का सिद्धान्त मनुष्यत्व या इंसानियत का प्रतीक है। मानवता वह विचार प्रणाली है जिसमें मानव, मानव के दु:खों  के प्रति सदय रहकर उसको दु:खों से छुटकारा दिलाने का प्रयत्न करता है। हमें भी मानवदयावाद सिद्धान्त (ह्यूमैनिटेरिइज्म) को अपना किसी भी कारण अन्यों के दु:ख का हेतु नहीं बनना। जानो ऐसा सुनिश्चित करने पर ही हम मानवता के सिद्धान्त पर स्थिरता से टिके रह सकते हैं और मानव धर्म यानि मनुष्य का मनुष्य के प्रति जो यथार्थ कर्त्तव्य है, उसको प्रसन्नचित्तता व निष्काम भाव से निभा सकते हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण मानव जाति धर्मसंगत सत्य-कर्म करते हुए अखंडता से एकता के सूत्र में बँधी रह सकती है। याद रखो ऐसा सुनिश्चित करना सम्पूर्णता व सम्पन्नता को प्राप्त हो परोपकार प्रवृत्ति में ढलने की मंगलकारी बात है।

अत: सजनों मानव वर्जित क्रियाएँ करना छोड़कर, मानवता के भाव अनुसार अपना मानसिक विकास करो। इस प्रकार बुरे से अच्छा इन्सान बनने हेतु, मानव धर्म की अभिमानना करने के प्रति दृढ़ संकल्पी हो जाओ और उसी सिद्धान्त अनुसार अपने मन-वचन व कर्म को साधने के लिए, विवेकशीलता से अपने वर्तमान चारित्रिक रूप का आत्मनिरीक्षण करो। आत्मनिरीक्षण से यहाँ तात्पर्य अपने भावों, वृत्तियों, गलतियों, बुराईयों और दोषों को स्वयं परखने से है। जानो इस आत्मविश्लेषण क्रिया द्वारा ही हम अपनी प्रवृत्तियों, योग्यताओं-अयोग्यताओं तथा अभिप्रेरणाओं आदि को स्वयं समझ सकते हैं और कहीं कमी नज़र आने पर आत्मनियन्त्रण द्वारा वांछित सुधार कर आत्मविश्वासी व आत्मनिर्भर बन सकते हैं। नि:संदेह ऐसा करने पर ही हम अपने आत्मिक बल के भरपूर प्रयोग द्वारा अपनी इन्द्रियों और मन को पूरी तरह से वश में रखते हुए, यथार्थ रूप से मानव धर्म पर टिके रह स्वतन्त्रता से जीवनयापन कर सकते हैं व एकजुट होकर कुदरती नियमानुसार इस जगत का उद्धार कर सकते हैं।

इस संदर्भ में सजनों आत्मनिरीक्षण करो कि दैनिक दिनचर्या यानि चौबीस घंटे के दौरान आप अन्दर ही अन्दर यानि अपने ख़्याल में कितनी नकारात्मक बातें सोचते हो या फिर नकारात्मक ढंग से कुछ भी प्राप्त करने के लिए अन्यों के लिए परेशानियाँ खड़ी करते हो? जाँचना करो कि मंदे-भाव-स्वभाव अपना कर अभी तक आप कितने बुरे इंसान बन चुके हो? इस परिप्रेक्ष्य में यदि अपनी स्वभाविक खोट नजर आ रही हो तो फिर आत्मसुधार कर सदैव सकारात्मक बने रहने के प्रति दृढ़ निश्चयी हो जाओ।

जान लो कि आप ही अपने आप को ख़ुद सुधार सकते हो। आपके अतिरिक्त कोई भी अन्य चाहे वह माता है पिता है, शारीरिक गुरु है, सगा-सम्बन्धी है या कोई अन्य मित्रगण है वह यह कार्य सिद्ध नहीं कर सकता। जान लो कि आप नित्य प्रति आत्मनिरीक्षण प्रक्रिया द्वारा, अंतर्दृष्टि की सहायता से, अपने अंत:करण रूपी दर्पण पर पल-प्रतिपल उभरने वाले, अपने मनोभावों के रूप का दर्शन कर, उनकी वास्तविकता को समझने की क्षमता रखते हो। इस संदर्भ में सजनों याद रखो कि जो भी आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया को ठीक तरह से करते हुए, इस क्षमता का कुशलता से प्रयोग कर, अपने शाश्वत धर्म पर डटा रहता है, उसके मन में कभी भी उद्वेग उत्पन्न करने वाले, कामयुक्त व गर्व युक्त बुरे भाव नहीं पनपते। इस प्रकार क्रोध, लोभ व मोह के अभाव के कारण, वह सहजता से अपने मन को संकल्प रहित रखते हुए, इस जगत में जो भी करता है वह निष्काम भाव व परोपकार प्रवृत्ति अनुसार ही करता है और जगत हितकारी कहलाता है। जानो ऐसे अक्लमंद व सदाचारी इंसान का अंत:करण विशुद्धता का प्रतीक होता है यानि उसका हृदय सचखंड बना रहता है।

इस महत्ता के दृष्टिगत सजनों, पावनता का प्रतीक बनने हेतु, नित्य प्रति अपने मन में उत्पन्न होने वाले भावों के रूप का अति श्रद्धा, प्रेम व आदर के साथ अवलोकन कर, यथार्थता का बोध करने के स्वभाव में ढलो। इस प्रकार आत्मसाक्षात्कार द्वारा अपने हृदय को इस तरह प्रकाशित रखो कि आत्मा और परमात्मा की शाश्वतता, धर्म रूप में सदा दृष्टिगोचर रहे और आप के अन्दर, कभी भी किसी भी वस्तु के प्रलोभन में आकर, उसे प्राप्त करने की कामना जाग्रत न हो। जानो ऐसा सुनिश्चित करने पर ही आप शब्द ब्रह्म विचारों को आत्मसात्‌ करते हुए, आत्मा-परमात्मा और प्रकृति के स्वरूप का तथा उनसे सम्बन्धित तत्वों यानि मानव जीवन के उद्देश्य यथा धर्म, मोक्ष आदि का ज्ञान प्राप्त कर पाओगे।  इसके विपरीत यदि ऐसा सुनिश्चित न किया तो जान लो कि आपके हृदय में इस प्रकार अमावस्या की रात्रि यानि अंधेरी रात छा जाएगी कि आपके लिए तत्त्वदर्शी बनना कठिन हो जाएगा और आप जगत में एक तमाशा बन कर रह जाओगे और सर्वत्र आपकी जग हँसाई होगी।

 सजनों अब जब हम सबको समझ आ गया कि कैसे हम कुकर्म-अधर्म के रास्ते से हटकर, सत्य-धर्म के निष्काम रास्ते पर अग्रसर हो सकते हैं और हमारी बिगड़ती हुई तकदीर सँवर सकती है तो हमें अविलम्ब कलुकाल के स्वभावों की गर्त्त से उबर कर, सतवस्तु के स्वभाव ग्रहण करने हेतु जाग्रति में आना होगा और इसी जीवनकाल में अपने जीवन का उद्देश्य सिद्ध करने हेतु तत्पर होना होगा।

सारत: सजनों याद रखो मानव धर्म की मानता सर्वोत्तम है। यही एकमात्र ऐसा धर्म है जो टूटे हुए व बिखरे हुए दिलों को जोड़ता है। अत: उखड़े दिल मिला कर, स्थिर मानसिकता द्वारा उजड़े घर बसाने हेतु, एक बुद्धिमान इंसान की तरह स्वार्थपरता छोड़, निष्कामता से, सोए हुओं को जगाओ, गिरते हुओं को उठाओ, रोते हुओं को हँसाओ व कुरस्ते पड़े हुओं को सत्य-धर्म के रास्ते पर ले आओ। ए विध सारे समभाव अपनाओ और समदृष्टि हो, समदर्शिता अनुरूप निर्विकारी स्वभाव अपना कर श्रेष्ठ मानव बन जाओ। ऐसा सुनिश्चित करने हेतु हम सबसे प्रार्थना करते हैं:-

अनेक धर्मों को छोड़ो सजनों

एक धर्म हो जाओ जी,

मानव धर्म है सब का सांझा

सारे वही अपनाओ जी और

परोपकारी नाम कहाओ जी।

सजनों यदि ऐसा बनना चाहते हो तो फिर किसी भी प्रलोभन में आकर अपना धर्म मत हारना यानि यदि निज धर्म की रक्षा हेतु तन, मन, धन भी वारना पड़े तो भी ऐसे करने से मत सकुचाना। सजनों निष्कामता अपना कर इसे अधर्म पर विजय पाने का मंत्र मानो। याद रखो जो भी ऐसी सामर्थ्य जुटा पाएगा उसके मन से स्वत: ही समस्त विकारी भावों का विनाश हो जाएगा। परिणामत: आप अन्दर की लंका पर विजय पा, अपने हृदय को सत्य से प्रकाशित कर परमपद प्राप्त कर लोगे।

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